हर्ज़
वैसे तो नहीं मानता मैं, ये रिवाज़ नए-नए त्योहारों के, जहां दुनिया बताती है, कहां, कब और क्या खरीदना है बाजारों से। मगर मां को एक दिन के लिए खुश देखा, तो लगा, नए रिवाज अपनाने में, इतना हर्ज़ भी क्या है? यूं बाजारी त्योहार मनाने में, इतना हर्ज़ भी क्या है? कौन सा साल भर मैं इतनी, कद्र करता ही हूं मां की, बाकी दिन वैसे भी मुझे खिलाकर, वो अकेले आधी रात को खाती है। घुटने का दर्द ना मैं याद रखता हूं, ना वो कभी अपने से याद दिलाती है। काश बाकी दिन भी पूछ लिया करूं, मां ये तेरा मर्ज़ भी क्या है? आज ड्यूटी निभाने को पूछा तो, यूं बाजारी त्योहार मनाने में, इतना हर्ज़ भी क्या है? ...