कश पे कश

कश पे कश मैं लगाता गया… हर तकलीफ़, हर दर्द, धुंए में उड़ाता गया। “ये बस आख़िरी है”, कह -कहकर ख़ुद को समझाता गया, कुछ इस तरह एक और, फिर एक और मैं सुलगाता गया… धीरे धीरे अपनों को अपने से दूर मैं भगाता गया, एक तड़पाती मौत को करीब, और करीब, मैं बुलाता गया। पर एक बार मरना मंज़ूर, हर रोज़ मरना गंवारा ना गया, इसीलिए कश पे कश, कश पे कश मैं लगाता गया… ...

December 8, 2012  · #104