मायशा

कहने को तो जिस चिराग से उजेरा था, कहने को तो उसी चिराग तले अँधेरा था। जिससे उम्मीद लगाए बैठे थे हम दोनों ही, कहने को तो ना वो तेरा ना मेरा था। सुनी है मुसाफिरों से अफवाह ये उड़ते-उड़ते, वो मायशा दिखी थी उन्हें शायद कहीं चलते-चलते, जो चहक के कभी आँगन में उड़ आती थी, उस चिड़िया का अब कहीं और ही बसेरा था। चल पड़ें या यूँ ही बैठे रहे उसके इंतज़ार में, जो छोड़ गया मुझे बे-रस्ता अपने ऐतबार पे। गम-ए-हिज़्र ना कर रबी, बस ये रात निकल जाने दे, पिछली मर्तबा स्याह रात के बाद ही हसीं सवेरा था। ...

December 13, 2016  · #355