मैं कश्ती हूँ
मैं कश्ती हूँ, मैं बहूँगा, थोड़े जल की बस ज़रूरत है। मैं लफ्ज़ हूँ, मैं रहूँगा, चढ़ने की लबों पे ये कुव्वत है। जो देखे थे तूने सपने, वो ख़्वाब अब भी पाले हूँ। तेरी आँखों से गिरे कतरे, मैं अब भी उन्हें संभाले हूँ। मैं सुबह हूँ, मैं लौटूँगा, बस रात ढलने की ही देरी है। मैं आग हूँ, मैं देहकूँगा। चिंगारी लगने की बारी मेरी है। ये ज़ंजीर मुझको काटे हैं, मुझे इनसे तू कट जाने दे। मैं हल्का सा ही जी लूँगा, फिर चाहे पूरा मर जाने दे। ...