सब्र कर
आग जला कर कोई भूल गया होगा सर्द रात में, रात काली है, कोहरा घना है अभी भी, उजली सुबह की चाह में अकेली बेठी है यहाँ, थोड़ा सब्र कर सुबह आएगी तो सही। तू अकेली नहीं है, और भी हैं यहाँ, हँसते खेलते जिनकी तिलमिला उठती है ज़िन्दगी, सपने देखती है, सपनो से ही डरती है अपने, थोड़ा सब्र कर, नींद अच्छी आएगी तो सही। चलते चलते थक गयी है तू, मालूम है, दूर कहीं उड़ जाने की ख्वाइश है तेरी, मन बहुत करता होगा नई ऊँचाइयाँ छूने का, पर थोड़ा सा तो सब्र कर , पंख लगने दे तो सही। ...