चिल्लाहटें
कुछ खामोश चीखें हैं मेरे पास, पर किसी को वो सुनाई नहीं देतीं , रोज चिल्लाता हूँ मैं तकिये में सर डाल कर , अँधेरे में चिल्लाहटें दिखाई नहीं देतीं। क्यों लगता है दलदल में फंसा हुआ, अब आजादी से रुसवाई सी लगती, क्यों आता है गुस्सा इतना, जब उलझाने कमाई सी लगती। दिन के रात, रात के दिन निकल जाते हैं, बंद मुट्ठियों में रेत सुखाई नहीं रूकती, कोई नहीं गौर करता जिंदा लाशों पर, जब तक मुखोटों की परत मुरझाई नहीं उतरती। ...