चिल्लाहटें

कुछ खामोश चीखें हैं मेरे पास, पर किसी को वो सुनाई नहीं देतीं , रोज चिल्लाता हूँ मैं तकिये में सर डाल कर , अँधेरे में चिल्लाहटें दिखाई नहीं देतीं। क्यों लगता है दलदल में फंसा हुआ, अब आजादी से रुसवाई सी लगती, क्यों आता है गुस्सा इतना, जब उलझाने कमाई सी लगती। दिन के रात, रात के दिन निकल जाते हैं, बंद मुट्ठियों में रेत सुखाई नहीं रूकती, कोई नहीं गौर करता जिंदा लाशों पर, जब तक मुखोटों की परत मुरझाई नहीं उतरती। ...

April 21, 2013  · #128

पर तुम नहीं

यूं तो बरकत भी है और शोहरत भी, साथ कुदरत भी है, ‘उसकी’ मेहरत भी , यूं तो है चार पल की फुर्सत भी, पर तुम नहीं, पर तुम नहीं… यूं तो ज़िन्दगी भी है और साँसे भी, कहने को मंजिलें भी हैं और राहें भी, यूं तो बारिशें भी हैं और पनाहें भी , पर तुम नहीं, पर तुम नहीं… यूं तो ख़ुशी भी है और हंसी भी, दिकत्तों की नहीं कोई कमी भी, यूं तो मैं कल भी था यहीं, और आज भी, पर तुम नहीं, पर तुम नहीं… ...

January 18, 2013  · #112