वैसे तो नहीं मानता मैं,
ये रिवाज़ नए-नए त्योहारों के,
जहां दुनिया बताती है, कहां,
कब और क्या खरीदना है बाजारों से।
मगर मां को एक दिन के लिए खुश देखा,
तो लगा, नए रिवाज अपनाने में,
इतना हर्ज़ भी क्या है?
यूं बाजारी त्योहार मनाने में,
इतना हर्ज़ भी क्या है?कौन सा साल भर मैं इतनी,
कद्र करता ही हूं मां की,
बाकी दिन वैसे भी मुझे खिलाकर,
वो अकेले आधी रात को खाती है।
घुटने का दर्द ना मैं याद रखता हूं,
ना वो कभी अपने से याद दिलाती है।
काश बाकी दिन भी पूछ लिया करूं,
मां ये तेरा मर्ज़ भी क्या है?
आज ड्यूटी निभाने को पूछा तो,
यूं बाजारी त्योहार मनाने में,
इतना हर्ज़ भी क्या है?मां इक दिन के दिखावे पे मेरे,
सब कुछ जानते हुए भी,
मेरे खुशी के लिए मुस्कुराती है।
आज मेरी जली सब्जी खा के भी,
वो मजेदार पकवान बताती है।
हां दिखावा है, पर सच कहूं तो,
दिखावे में इतना हर्ज भी क्या है?
यूं बाजारी त्योहार मनाने में,
इतना हर्ज़ भी क्या है ?~रबी
[ I don’t believe in these new-age festivals,
Where the world dictates what, when, and where to buy.
But seeing my mother happy just for a day,
I thought, what’s the harm in adopting new ways?
So what if we celebrate these commercial festivals?
I don’t cherish my mother enough throughout the year,
While she eats alone late at night, after feeding me.
I always forget her aching knees, and she never reminds me.
I wish I’d ask her every day, “Mother, what ails you?”
Today, when I asked her to all this as a ‘duty’,
I thought, so what if we celebrate these commercial festivals?
My mother, knowing everything, puts up a show for me,
Smiling for my happiness, even today.
Even after eating my burnt food, she praises it.
Yes, it’s a show, but honestly, what’s the harm in a show?
So what if we celebrate these commercial festivals? ]